पहरा
एक रात, पलक झपकते मैंने रात से पूछा,
जब मैं सोती हूँ,तो तू क्यूँ पहरा देती है?
वो कहती है,’ तेरे यह जो अनेक सपने है,
कभी मद्धम,कभी एकाएक तेरे सिर्हाने आते है,
फिर तेरी पलकों से यूँ निरझर बहते है।
गर, देर सवेर तू उन्हें भूला भी दे,
तेरी परछाईं बन तेरा साथ निभाते है,
उनकी भी एक आस है,
कि कभी इस निशा से कहीं दूर,
किसी दिन वो भी उजाला देखेंगे
की तुझे अपने होने पे हो सके गुरूर,
उस मुकम्मल घड़ी की वज़ह बनेंगे।’
जब तक सो सके तो सोती रह पर,
जिस रात तू सो ना पाए इन अधूरे सपनो के आवेग में
उस रात की ताक में मैं पहरा देती हूँ।
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