मुझे नहीं पता



तुम,
महज़ एक अलफ़ाज़,
या हवा को चीरती हुई एक गूँज?
सावन के पत्ते की कम्पन,
या मेरी स्मृतियों में चढ़ती हुई बारीक धूल ?
मुझे नहीं पता ৷

तुम,
कोरे कागज़ की सूखी स्याही ,
या डूबते सूरज की आख़िरी ख़्वाहिश?
सांझ में दो दिलों की उठती-गिरती तरंग,
या  किसी मरुस्थल में टूट के पड़ी झमझमाती बारिश ?
मुझे नहीं पता ৷

तुम,
मेरे ज़हन में कोई पनपता एह्साह ,
जिसका अस्तित्व भी शायद है एक कल्पना,
अलफ़ाज़ दू उसे , तो वो नश्वर,
रखु  गुप्त, तो एक अप्रत्यक्ष  वेदना
मुझे नहीं पता ৷

तुम,
जितना मैं  तुम्हारे करीब हूँ ,
उतनी ही तुम मुझसे ओझल हो,
जिन आँखों ने तुम्हे तलाशा उम्र भर,
आज उन्ही आँखों को तुम बोझल हो ৷


शायद मुझे है पता  कि  तुम कौन हो,
बस दीदार करने की चेष्ठा नहीं है,
आज एक मदहोशी है , तुम्हारी खुमारी है,
और इस खुमारी से विचलित होने की अभी इच्छा नहीं है ৷


Comments

Ankita said…
These are indeed great thoughts, written so well
Rahul Bhatia said…
बहुत सुन्दर भाव

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